Monday, October 22, 2007

सहयोग ,श्रम और शांति

धर्म राज ? यह भूमि किसी की नहीं करीत है दासी । हैं जन्मना समान परस्पर इसके सभी निवासी । है सबको अदहिकार मृत्तिका पोषक -रस पीने का । विविध अभावोन शे अशंक होकर जग में जीने का । विघ्न अनेक अभी इस पथ में परे हुईं हैं । मानवता की रह रोककर पर्वत अरे हुए हैं । न्यायोचित सुख सुलभ नहीं जब तक मानाव -मानव को । चैन कहाँ धरती पर तब तक , शांति कहाँ इस भाव को ?
यह धरती फल -फूल , अन्न , धन ,रत्न उगलने वाली । यह पालिका म्रिग्व्य जीव की अत्वीं सघन निराली । तुंग श्रृंग यह शैल , कि जिमें हीरक रत्ना भरे हैं । यह समुद्र , जिनमें मुक्त अ -विद्रुमा प्रवाल बिखरे हैं । सब हो सकते तुष्ट , एक सा सुख पा सकते हैं । चाहें तो पल में धरती को स्वर्ग बना सकते हैं । छिपा दिए सब तत्त्व आवरण के नीचे इह्वर ने । संघर्षों शे खोज निकला उन्हें उद्यमी नर ने । ब्रह्म शे कुछ उसने अपने भुज -बल शे ही पाया है । ब्रह्मा का अभिलेख पर्हा करते उद्यमी प्राणी । धोते वीर कु -अंक भाल का बहा भ्रुवों शे पानी ।

भाग्यवाद आवरण पाप का , और श्रस्त्र शोषण का । जिससे रखता दबा एक जन भाग्य दुसरे जन का
पूछे किसी भाग्यवादी शे , एडी विधि -अंक प्रबल है । पद तर क्यों न देती स्वयम वसुधा निज रत्न उगल है ?

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