Tuesday, October 9, 2007

सुरेन्द्र सिंह कुश्वाह

आवाम

आंखों में अंजन अन्ज्वा दो , मेरे आगे से परदे हटवा दो

अपनों से मिलने जाना है , मेरे पैरों से बन्धन खुलवा दो

गरीबी में भी मगन हैं ये खुदा के बन्दे सरहदें लाँघ कर ये हर वतन में रहतें हैं

राम के भक्त, फरिश्तों के ये प्यारे बन्दे ख़ाक में मिल के ये सोना उगाया करते हैं

इनकी आंखों से सचाई की चमक आती है खुद तो गुमनाम हैं फुटपाथ पे इनकी दुनिया

इनके होंठों से मुहब्बत की सदा आती है इनसे तामीर हैं तारों की ये रंगीन दुनिया

इनकी मह्नेत की शिफात से ये कारखाने हैं

लहू से इनके लबालब सभी खजाने हैं

ये गंगा जाम्जम के वारिस , इन्हें थोडा सा पानी पिलवा दो

मेरी आंखों में .................................

इन्हीं के ख़ून के प्यासे हैं ये जुल्मी सारे मगर सच देखने की इनमें बड़ी चाहत हैं

जात , नस्लों वा मजहब के जुनूनी सारे जुल्म से लड़ने की रूहों में बड़ी ताक़त हैं

इन्हीं पे अत्मी तोपों ने कहर ढाया हैं इन्हीं से ईसा मुहम्मद उभर के आये हैं

देश दर देश को पैरों तले दबाया हैं बुध, सुकरात वा गाँधी उभर के आये हैं

यही कबीर रविदास और मीरा हैं

ख्वाजा , नानक , यही तुलसी फरीद सूरा हैं

जिसका सूरज ना डूबता था उस हुकूमत से

निहत्थे भिड़ गए उसको हटाया भारत से

इन्हीं से दुनिया में आजादी कि हवा आई

जमीन पे ताजगी की इक नयी सुबह आई

इन परवानों के कदमों में दो फूल वफ़ा के चढवा दो

मेरी आंखों ..........................


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